रक्षाबंधन के दूसरे दिन ग्राम लाड़कुई मे हर्ष उल्लास से मनाया गया भुजरिया पर्व…

अमित शर्मा, लाड़कुई/भेरूंदा
मंगलवार को भुजरिया पर्व ग्राम लाड़कुई में धूमधाम से मनाया जाएगा। भुजरिया पर्व प्रकृति प्रेम और खुशहाली से जुड़ा है। अच्छी बारिश, फसल एवं सुख-समृद्धि की कामना के लिए रक्षाबंधन के दूसरे दिन भुजरिया पर्व मनाया जाता है। इसी क्रम मे ग्राम लाड़कुई मे भी आदिवासी लोगो द्वारा ग्राम के मुख्य मार्ग से सिर पर भुजरिया रखकर महिलाए जलाशय की ओर निकाली, इस दौरान ग्राम के आदिवासी लोग ढोल ढमाको की थाप पर जमकर थिरकते नजर आए। वही ग्राम के तालाब पर पहुंचकर भुजरिया का विसर्जन किया गया। श्रावण मास की पूर्णिमा रक्षाबंधन के अगले दिन भुजरिया पर्व मनाया जाता है। यह पर्व मुख्‍य रूप से बुंदेलखंड का लोकपर्व है। इसे कजलियों का पर्व भी कहते हैं। मंगलवार को भुजरिया पर्व धूमधाम से मनाया जाएगा। कजलियां पर्व प्रकृति प्रेम और खुशहाली से जुड़ा है। 

आइये जानते हैं इस पर्व के बारे में सब कुछ।

क्‍या है होता भुजरिया-

जल स्त्रोतों में गेहूं के पौधों का विसर्जन किया जाता है। सावन के महीने की अष्टमी और नवमीं को छोटी – छोटी बांस की टोकरियों में मिट्टी की तह बिछाकर गेहूं या जौं के दाने बोए जाते हैं। इसके बाद इन्हें रोजाना पानी दिया जाता है। सावन के महीने में इन भुजरियों को झूला देने का रिवाज भी है। तकरीबन एक सप्ताह में ये अन्नाा उग आता है, जिन्हें भुजरियां कहा जाता है।

भुजरियों की पूजा का महत्‍व-

इन भुजरियों की पूजा अर्चना की जाती है एवं कामना की जाती है, कि इस साल बारिश बेहतर हो जिससे अच्छी फसल मिल सकें। श्रावण मास की पूर्णिमा तक ये भुजरिया चार से छह इंच की हो जाती हैं। रक्षाबंधन के दूसरे दिन इन्हें एक-दूसरे को देकर शुभकामनाएं एवं आशीर्वाद देते हैं। बुजुर्गों के मुताबिक ये भुजरिया नई फसल का प्रतीक है। रक्षाबंधन के दूसरे दिन महिलाएं इन टोकरियों को सिर पर रखकर जल स्त्रोतों में विसर्जन के लिए ले जाती हैं।

आदिवासी लोक नृत्य

यह है भुजरिया की कथा-

इसकी कथा आल्हा की बहन चंदा से जुड़ी है। इसका प्रचलन राजा आल्हा ऊदल के समय से है। आल्हा की बहन चंदा श्रावण माह से ससुराल से मायके आई तो सारे नगरवासियों ने कजलियों से उनका स्वागत किया था। महोबा के सिंह सपूतों आल्हा-ऊदल-मलखान की वीरता आज भी उनके वीर रस से परिपूर्ण गाथाएं बुंदेलखंड की धरती पर बड़े चाव से सुनी व समझी जाती है। बताया जाता है कि महोबे के राजा के राजा परमाल, उनकी बिटिया राजकुमारी चन्द्रावलि का अपहरण करने के लिए दिल्ली के राजा पृथ्वीराज ने महोबे पै चढ़ाई कर दी थी। राजकुमारी उस समय तालाब में कजली सिराने अपनी सखी – सहेलियन के साथ गई थी। राजकुमारी को पृथ्वीराज हाथ न लगाने पाए इसके लिए राज्य के बीर-बांकुर (महोबा) के सिंह सपूतों आल्हा-ऊदल-मलखान की वीरतापूर्ण पराक्रम दिखलाया था। इन दो वीरों के साथ में चन्द्रावलि का ममेरा भाई अभई भी उरई से जा पहुंचे। कीरत सागर ताल के पास में होने वाली ये लड़ाई में अभई वीरगति को प्यारा हुआ, राजा परमाल को एक बेटा रंजीत शहीद हुआ। बाद में आल्हा, ऊदल, लाखन, ताल्हन, सैयद राजा परमाल का लड़का ब्रह्मा, जैसें वीर ने पृथ्वीराज की सेना को वहां से हरा के भगा दिया। महोबे की जीत के बाद से राजकुमारी चन्द्रवलि और सभी लोगों अपनी-अपनी कजिलयन को खोंटने लगी। इस घटना के बाद सें महोबे के साथ पूरे बुन्देलखण्ड में कजलियां का त्यौहार विजयोत्सव के रूप में मनाया जाने लगा है। कजलियों (भुजरियां) पर गाजे-बाजे और पारंपरिक लोक गीत गाते हुए, महिलाएं नर्मदा तट या सरोवरों में कजलियां खोंटने के लिए जाती हैं। हरियाली की खुशियां मनाने के साथ लोग एक – दूसरे से मिलेंगे और बड़े बुजुर्ग कजलियां देकर धन -धान्य से पूरित कहने का आशीर्वाद देंगे।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Translate »
error: Content is protected !!